वर्तमान आचार्य 

(संतमत सत्संग आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर, बिहार, भारत )

संतमत के वर्तमान आचार्य पूज्यपाद महर्षि हरिनन्दन परमहंसजी महाराज का आविर्भाव बिहार राज्यान्तर्गत सुपौल जिले (पूर्व सहरसा) के मचहा गाँव में सन् 1934 ई0 के 23 मार्च को हुआ। माता-पिता ने आपका नाम हरिनन्दन रखा। बचपन में ये पूर्व संस्कारवश अपने गृह देवता की पूजा बड़ी निष्ठा के साथ किया करते थे। इनका वही संस्कार इन्हें बाद में महान संत महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शरण में ले आया। इनके पिताश्री श्रीकलानन्द यादव एक अच्छे कृषक तथा माताश्री सुखिया देवी बहुत भोली-भाली तथा अत्यन्त भक्ति-परायणा थीं। बचपन से ही ये निर्भीक, साहसी, बड़े मेधावी, आज्ञाकारी, श्रुतिधर और स्मृतिधर रहे। एक बार जो पढ़ या सुन लेते वह सदा के लिए स्मृतिपटल पर अंकित हो जाता। 



 प्रारंभिक शिक्षा गाँव के प्राथमिक विद्यालय में हुई। तत्पश्चात् आपका नामांकन 1949 ई0 में मध्य विद्यालय डफरखा (त्रिवेणीगंज) में कराया गया। उन दिनों मध्य विद्यालय में सातवीं श्रेणी तक ही पढ़ाई होती थी। सप्तम श्रेणी में जाँच-परीक्षा के पश्चात् छात्र-छात्रओं को बोर्ड परीक्षा (फाइनल) हेतु उत्प्रेषित किया जाता था। बोर्ड परीक्षा में आपने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्णता प्राप्त की। आप विद्यालय के प्रतिभाशाली छात्र थे। अपनी मेधा के कारण आप विद्यालय के प्रधानाध्यापक तथा सभी शिक्षकों के बहुत प्यारे थे। आपके सौम्य स्वभाव एवं सद्व्यवहार की सभी सराहना कर आपको प्रेरित तथा प्रोत्साहित किया करते थे।


 ऐसे प्रतिभाशाली पुत्र-रत्न से माता-पिता एवं स्वजन-परिजनाें को बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। पिताश्री आपको उच्चतम प्रशासनिक पद पर देखने के अभिलाषी थे। स्वाभिलाषा की पूर्ति के लिए आपका नामांकन उच्च विद्यालय त्रिवेणीगंज (सुपौल) के अष्टमवर्ग में 1951 ई0 में कराया गया। आप नियमित रूप से विद्यालय जाते थे।


 उच्च विद्यालय त्रिवेणीगंज में आप अध्ययन तो करते रहे; परन्तु आंतरिक अभिलाषा तो कुछ और थी, जिसकी प्यास वर्ग के पाठ्य पुस्तकों से नहीं बुझ पा रही थी। आपने स्वाध्याय हेतु पुस्तकालय की सदस्यता ग्रहण करना अनिवार्य समझा। उन दिनों त्रिवेणीगंज में एक पुस्तकालय था। जिसका नाम था-‘नवीन पुस्तकालय।’ उक्त पुस्तकालय से धार्मिक पुस्तकें लेकर आप पढ़ते, फिर समय पर लौटा दिया करते थे। इस क्रम में आपने अनुभव किया कि मानवों के ज्ञानार्जन का सर्वश्रेष्ठ साधन पुस्तकालय है। इसीलिए क्यों नहीं अपने गाँव में एक सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित किया जाए, जिससे लोगों का भी ज्ञान-वर्द्धन हो।


 आपने ग्रामीणों को प्रेरित कर उनके सहयोग से 1954 ई0 में एक पुस्तकालय की स्थापना की। इसका संचालन पहले स्थानीय प्रारम्भिक पाठशाला में करने का निर्णय किया गया; किन्तु उक्त पाठशाला के शिक्षक अध्ययन-अवधि के बाद विद्यालय में नहीं रहते थे। तब समस्या के समाधान के लिए आपने ग्रामीण सत्संगियों तथा श्रीसियाराम बाबू से विचार-विमर्श किया। उनलोगों के परामर्शानुसार सत्संग भवन परिसर का ही एक कमरा उपयुक्त समझा गया, जो मोती बाबा के सौजन्य से पुस्तकालय को प्राप्त हो गया। उसका नामकरण किया गया-‘महर्षि मेँहीँ पुस्तकालय, मचहा।’ सद्गुरु महर्षि मेँहीँ का आशीर्वाद भी मिल गया। कुछ ही दिनों बाद पुस्तकालय को सरकारी अनुदान स्वरूप अपेक्षित पुस्तकें तथा रेडियो सेट प्राप्त हुए। आप 1954 ई0 से 1957 ई0 तक पुस्तकालय में ही निवास करते रहे। घर केवल खाना खाने जाते; लेकिन कुछ दिनों के बाद आप घर जाना भी छोड़ दिए।


 मोह-ममता की साक्षात् प्रतिमा माताश्री नित्य भोजन पहुँचाने पुस्तकालय पधारने लगीं और घर-गृहस्थी का पाठ पढ़ाती रहीं, पर आपके हृदय पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। माँ की प्यारी-प्यारी बातों को आप अपने स्नेहिल वाणियों में घुले विलक्षण तर्कों से टालते रहे।


 निकट भविष्य में मैट्रिक की जाँच परीक्षा 1954 ई0 में सम्मिलित हो, प्रथम श्रेणी अंक प्राप्त कर अपनी लक्ष्य-प्राप्ति के लिए त्रिवेणीगंज उच्च विद्यालय से सदा के लिए निकल पड़े। प्रधानाध्यापक, शिक्षकगण, पारिवारिक सदस्य तथा ग्रामीण आपके ऐसे क्रांतिकारी निर्णय से किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे और आप अपने संकल्प ईश्वर की प्राप्ति पर अड़े रहे।


 पुस्तकालय में सर्वाधिक महर्षि मेँहीँ-रचित ग्रंथ थे। सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के ग्रंथों का नियमित पाठ करना आप अपना परम धर्म समझते थे। इसीलिए आपपर आध्यात्मिक रंग गहराया। मोती बाबा के सत्संग में भी सम्मिलित होने का आपको स्वर्णिम अवसर मिलता रहा। इन दोनों संयोगों ने आपको अपने लक्ष्य तक पहुँचाने में पर्याप्त अवसर प्रदान किया।


 इसी अंतराल में संयोगवश एक कन्या-पिता विवाह के उद्देश्य से आपके पिताश्री के पास आए और वैवाहिक वार्ता होने लगी। पिताश्री ने आह्वानपूर्वक अपने पुत्र (हरिनन्दन) को कन्या-पिता के समक्ष बुलवाया। सारी बातें हुईं। पिताश्री ने अपने तथा कन्यापिता के लिए भी पुत्र की इच्छा जानना अनिवार्य समझा। ‘क्या आप विवाह करना पसंद करेंगे?’-कन्यापिता द्वारा प्रश्न करते ही उत्तर मिला-‘विवाह मुझे पसंद नहीं।’ कन्या पिता निराश होकर अपने घर लौट गये।


 उन दिनों से पिताजी बड़े चिंतित रहने लगे। पहली चिंता तब हुई थी, जब आपके मेधावी पुत्र ने विद्यालय का बहिष्कार किया था, दूसरी चिंता तब हुई, जब इन्होंने विवाह का बहिष्कार मर्यादित ढंग से कुलजनों के समक्ष किया। इन चिंताओं से आपके पिता आपसे खिन्न रहने लगे।


 माताश्री जब खाना पहुँचाने पुस्तकालय पहुँचीं, तो दुलारते हुए कहा-‘बेटा, तोरा एना नै कहना चाही। पिताजी के इज्जत के कैनटा तूँ ध्यान नै राखल्हौ। की सोचनै होतै बरतुहार, तोंही कैनटा सोचहो। तूँ त पढ़ल-लिखल होशियार बेटा न छऽ।’


 हरिनन्दन ने माँ को प्यारपूर्वक समझाते हुए कहा-‘माय! अगर हम बीहा लेल तैयार भै जैतिये, तऽ पिताजी के अरमान कहियो पूरा नै होतियै। घर के काम में फैंस क हम अपने लक्ष्य तक नै पहुँचतियौ। बड़ा वह होयछै, जे अपन कुल के लाज के पताका समूचे संसार में फहराबै छै। कुछेक दिन के बाद तोरा सबकै मालूम हयतौ कि हम जे बरतुआर के नै कहलियौ, ऊ केतना ठीक छै। माय, पिताजी के ये बात सें कोनो दुःख नै मानैल कहियै। हम पिताजी के नाम कै संसार में उजागर कै के रहबौ।’


 माँ उन शुभ दिनों को मन-ही-मन विचारती हुई घर वापस आ गई। परिवार के सभी लोग आश्वस्त हो गये कि हरिनन्दन को अब कुछ भी कहना बेकार है, वह साधु बनकर रहेगा।

 माता की ममता, पिता का प्यार तथा परिवार का मोह त्यागकर साधु-वेश में आप सद््गुरु एवं हरि-चर्चा में पूर्णतः निमग्न रहने लगे। न खाने की सुधि न विश्राम की चिंता। मानो अध्यात्म-पथ का दीवाना पथिक हो। मोती बाबा की संगति से इनकी आध्यात्मिक भावना और प्रबलतम होती चली गयी।


 मोती बाबा द्वारा वर्णित सद्गुरु के अनंत गुणों को इन्होंने विद्वान शिष्यों द्वारा रचित ग्रंथों में भी पढ़ा था, जो पर्याप्त संख्या में पुस्तकालय में उपलब्ध थे। मोती बाबा की चर्चा और पुस्तकों के गम्भीर चिंतनों ने सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के दर्शन की लालसा आपमें जगा दी। अपनी अभिलाषा आपने मोती बाबा को जताई। एक संन्यासी युवक की अंतरात्मा की पुकार सद्गुरु के कानों तक पहुँची, तभी तो कुछ ही दिनों बाद, सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के द्वारा मचहा-वासियों का आमंत्रण स्वीकारा गया। मोती बाबा ने उनके आगमन की पुनीत तिथि से हरिनन्दनजी को अवगत कराया। युवा संन्यासी हर्षोत्फुल्ल हो उठा, मानो, मरणासन्न पुष्पोपवन को सावनी पीयूष-धार मिल गया हो।


 सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज शिष्य-स्नेहवश 1957 ई0 को कृपापूर्वक मचहा ग्राम पूर्ववत् पुनः पधारे। स्कूल से पश्चिम फूस का एक निवास बनाया गया था। उसी में गुरु महाराज ठहरे हुए थे। लगातार तीन दिनों तक प्रातः, अपराह्ण उनके प्रवचनों का अमृत-वर्षण होता रहा। जिस-जिस समय उनका प्रवचन होता, श्रद्धापूर्वक आप उनके अति समीप बैठे रहते और एकाग्रचित्त से उनके उपदेशों को हृदयंगम करते थे। आपकी मुद्रा पर महर्षिजी का भी विहंगम कृपादृष्टिपात होता रहता था। एक समर्पित शिष्य की मनःस्थिति का आभास सद्गुरु को क्षणभर में मिल जाता है। अंतिम दिन गुरु महाराज प्रवचन में कहे-‘जो वैरागी जीवन बिताना चाहता है तथा अलगी काम नहीं करना चाहता है, वह मेरे साथ आ सकता है।’ आपके मन में यही था, गुरु महाराज साथ रख लेते, तो बड़ा अच्छा होता। आपकी आवाज को गुरु महाराज सुन लिए थे। रात के लगभग ढाई बजते होंगे। जहाँ महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के विश्राम का सुप्रबंध किया गया था, धीरे-धीरे आप वहाँ पहुँचे और आप देखे कि भूपलाल बाबा और संतसेवी बाबा छोटी चौकी लगाकर उसपर आसनी बिछाकर बालटी में पानी भरकर रख दिये। गुरु महाराज दोनों को बोले-स्नान भी करूँगा; क्योंकि सवेरे जाना है। गुरु महाराज ने दोनों से कहा- श्श् आप दोनों यहाँ से चले जाएँ।य् उसके बाद आप वहाँ पहुँचकर खड़े थे। 


 शौचादि कर्म से निवृत्त हो मुँह धोते हुए ज्यों ही सद्गुरु महाराज ने अपने पग-तल में एक निरीह युवक पर दृष्टिपात किया, वे विस्मित हो गए और कृपापूर्वक पूछा-‘कौन हो तुम?’


 आपने कहा-‘हरिनन्दन!’ कहाँ आए हो? आप बोले-‘हुजूर सेवा में साथ रख लेते, तो अच्छा होता।’ गुरुदेव ने पिता से आदेश लेने की आज्ञा दी। तत्क्षण आप पिताजी के पास पहुँचे। पिताजी चौकी पर लेटे हुए थे। केवल कपड़ा से मुँह, हाथ और शरीर को ढक लिए थे। आप पैर छूकर पिताजी को प्रणाम किए। पिताजी ने मुँह से कपड़ा हटाकर देखा और कुछ नहीं बोले। पिताजी मन-ही-मन सोचे कि तीन साल से घर नहीं आता था, आज क्या बात है, जो घर आया है। आपने गुरु महाराज के साथ जाने के लिए तीन बार आदेश माँगा; लेकिन पिताजी ने कुछ नहीं कहा। आपने कहा-‘अगर आदेश नहीं दीजिएगा, तो मैं कहीं भाग जाऊँगा।’ पिताजी सोचे कि अगर मैं आदेश नहीं दूँगा, तो यह कहीं बाहर भाग जाएगा। यदि आदेश दे देता हूँ, तो यह गुरु महाराज के पास ही रहेगा। पिताजी ने अंततः आदेश दे ही दिया। आप गुरु महाराज के पास पहुँचे और बोले कि पिताजी से आदेश ले लिए हैं। फिर गुरुदेव ने आपके पिताश्री को बुलाया और आपके पिताजी से पूछा-‘आप इनको जाने कहते हैं?’ पिताजी ने कहा-‘हाँ हुजूर।’ इसपर गुरुदेव की स्वीकृति भी आपको प्राप्त हो गई। वे बैलगाड़ी से सुखासन सत्संग-कार्यक्रम में भाग लेने चले गए। आपको पुस्तकालय एवं सत्संग-कार्यक्रम का हिसाब चुकता कर पास आने का आदेश मिला। सारा हिसाब करके गुरु महाराज के पास प्रस्थान करने से पहले आप अपने दरवाजे पर पिता से विदा लेने गये। पिताजी चौकी पर लेटे हुए थे, आपके बड़े भाई दरोगी यादव बोले-आज पिताजी देर तक क्यों सोये हैं? तो पिताजी बोले-‘हरिनन्दन नहीं रहेंगे, गुरु महाराज के साथ चले जायेंगे।’ यह कहकर रोने लगे। वज्र-सा कठोर पिता का हृदय पुत्र-वियोग में रो रहा है। माता का वात्सल्य फूट पड़ा। माता रोने लगीं। बहनें भी रोने लगीं। जिस माँ ने बहुत लाड़-प्यार से आपको पाला-पोसा था। कभी कोई तकलीफ नहीं होने दिया था। वह माँ आज आपके गृहत्याग से काफी दुःखी हैं। माता और बहनें रो रही हैं। आप हिमालय की तरह अडिग हो अपने गंतव्य पथ पर जाने के लिए तैयार हैं। आखिर सबको रोते-बिलखते छोड़ आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सदा के लिए घर से विदा हो गये। घर से पैदल चलकर आप सुखासन गुरु महाराज के पास आ गये। तब से लेकर छाया की भाँति सद्गुरु की सेवा में 8 जून 1986 ई0 तक आपने अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। जिस प्रकार त्रेता में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ तथा राजर्षि विश्वामित्रजी की सेवा में श्रीरामजी रहते थे, जिस तरह श्रीराम की सेवा में अनन्य भाव से श्रीहनुमानजी रहते थे, जिस तरह द्वापर में श्रीगर्गाचार्य तथा संदीपन मुनि की सेवा में श्रीकृष्णजी रहते थे, जिस तरह श्रीकृष्ण की सेवा में श्रीउद्धवजी रहते थे, जिस तरह कलियुग में भगवान बुद्ध की सेवा में भिक्षु आनन्द रहते थे, जिस तरह मदाद्य शंकराचार्य की सेवा में श्रीसुरेश्वराचार्यजी रहते थे, जिस तरह गुरु नानक साहब की सेवा में श्रीअंगददेवजी रहते थे, जिस तरह श्रीअंगददेवजी की सेवा में श्रीअमर- दासजी रहते थे, जिस तरह संत दादू दयालजी की सेवा में जग्गा साहब रहते थे, जिस तरह संत चरणदासजी की सेवा में भक्तिन सहजोबाई एवं दयाबाई रहती थीं, जिस तरह गोसाईं लक्ष्मीनाथ परमहंस की सेवा में रघुवर गोसाईं रहते थे, जिस तरह रामकृष्ण परमहंस की सेवा में स्वामी विवेकानन्द रहते थे, जिस तरह समर्थ रामदास की सेवा में छत्रपति शिवाजी रहते थे; उसी प्रकार ब्रह्मलीन सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की सेवा में पूज्यपाद श्रीहरिनन्दनजी महाराज अपने आपको न्योछावर करके सदा गुरुमय होकर रहते थे।


 जिस प्रकार श्रीकृष्ण आदि समर्पित शिष्य सद्गुरु मुनिवर संदीपन के गृहाश्रम में पात्रत्व के आधार पर दीक्षित हुए थे। उसी प्रकार युवा वैरागी श्रीहरिनन्दन बाबा को सद्गुरु महाराज के पैतृक गृहाश्रम सिकलीगढ़ धरहरा, (बिहार राज्यान्तर्गत पूर्णियाँ जिला के बनमनखी के निकट) में दीक्षित होने का अहोभाग्य 1957 ई0 में हुआ था। गुरु आश्रम में दीक्षित होना सामान्य बात नहीं, यह पूर्व जन्म के सुकर्म एवं देवयोग का प्रतिफल माना जाता है।


 आपने अपने श्रीसद्गुरु महाराज की छत्रछाया में लगभग 30 वर्षों तक रहकर उनकी सेवा और साधना की, जिससे आप गुरु-कृपा से संतमत के सर्वोच्च पद पर आसीन हुए। 

 आपके आत्म-प्रकाश ने आपकी माताश्री, पिताश्री और आपके कुल को धन्य कर दिया है। आपका वंश अमर हो गया है।


 महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज ने 4 जून, 2007 ई0 की रात्रि लौकिक लीला का परित्याग कर स्थूल जगत से विदाई ले ली।


 6 जून, 2007 ई0 के स्वर्णिम दिवस पर अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा, साधु-समाज एवं प्रबुद्ध सत्संगियों द्वारा संतमत-सत्संग के गौरवमय ‘वर्तमान आचार्य’ के पद पर आपको आसीन किया गया। तब से संतमत का उन्नयन नई ऊँचाई ले रहा है। गुरुदेव के ज्ञान की पताका आपके निर्देशन में अपनी अद्भुत चमक के साथ लहरा रही है।